Monday 14 May 2012

ओ नदिया

ओ नदिया होती है क्यूँ उदास..?
रूठ, रवि जो गया
नील नभ के पास ,
है अभी रोष और
चमकने की कामना,
धूप और उजियारा पूरे दिन बाँटना,
तनिक हौल पाते जब
जागेगी प्यास ,
पानी को तरसेगा
सुबह जो भूला था
साँझ को ,परसेगा
तेज़ कदम आयेगा,
त्याग ,मान-अभिमान
अंक में छुप जायगा ,
छोड़ तुझ को भला
और कहाँ जायगा,
तेरे आँचल की ठंढक से,
पिघल पिघल जायगा...!
बस तू अपना धर्म निभा,
शान्तमना बहती जा....!

माई..!

मोरी अंखियन ते अंसुआ निकरि के,
जाई अम्मा तोरे अंचरा माँ दुबके..!
मोरे अंचरा के दुःख महतारी,
तोरे हियरा माँ लागि के सुबके.......!
...
तुमही देवी बसौनी मोरी मईया,
छिनु-छिनु पइयां तोरी लागों रे माई!

मूंदी अंखियन का हियरा माँ अपने,
मईया तोरी सुरतिया निहारों...!
ध्वावन अंसुवन ते त्वार चरनवा,
धरिके अंचरा हओं तोहिका जुहारों.!

मोरी गूंगी दरदिया का जानए,
अईस कौनो सनेहिया न पावा...!
साँची लागै पिरितिया तोरी माई,
सारी दुनिया करति है दिखावा..!

जब ते बिछुरी मोहिते री माई,
कौनों पावा न दुखवा पुछईया...!
फरफरावती हैं ऐसे परनवा,
जैसे पिजरा माँ फरकै चिरैया..!

Friday 27 April 2012

व्यर्थ भटकते रहते हैं..!

कहने को सब कुछ अपना है,
लेकिन यह केवल सपना है,
इन सपनों के खातिर,जीते मरते रहते हैं,
व्यर्थ भटकते रहते हैं..!

... कितने जाल बुनें ज्यों मकड़ी,
रिश्तों की जंजीरें jakadeen ,
खाली घट में व्यर्थ कबाड़ा भरते रहते हैं,
व्यर्थ भटकते रहते हैं...!

बाहर रोज़ दिवाली मनती,
पर अंतस की ज्योति न जलती,
कुछ भी यहाँ न अपना,अपना कहते रहते,
व्यर्थ भटकते रहते हैं...!

हाँथ सुमरनी माला फेरूँ,
अंतस बैठा उसे न हेरूँ,
चलती बेरा झर -झर आंसू बहते रहते हैं,
व्यर्थ भटकते रहते हैं...!
-मनोरमा पांडेय

Friday 6 April 2012

चाँद के दस्तखत..

 वक़्त की टहनी से, एक रात तोड़ कर,
एक ख्वाब जिया और  .....
ले लिए थे दस्तखत चाँद के
ताकि सनद रहे...!
हवा की रोशनाई से किये थे  जो सही
चाँद ने ,
महकते  हैं आज भी वो रातरानी से .....
आज जब नही हो तुम
ना ही उस गुज़िश्ता ख्वाब की
ताबीर की जुस्तजू,लेकिन
दिल के सादा कागज़ पे
चाँद के दस्तखत मौजूद  हैं किये थे उस ने
जो चांदनी की रौशनाई से,
ताकि सनद रहे....!
चाँद के उस दिठौने से सही ने,
दे दी है गवाही उस खूबसूरत से रिश्ते की,
जो जिया था हम ने ख्वाब में...और ,
बीज दिया है मेरे अहसास की गीली मिटटी पे,
एक रिश्ता बरगद के मानिंद...!
जो सिखाता है मुझे
 जीवन जीने की कला..
उस के पत्तों से छन-छन कर
आती चांदनी,
दुलरा जाती है मुझे.....
दूर फलक पे चाँद मुस्कुराता है,
किसी वीतरागी की तरह.....!


'दुःख' - -वंदना





दुःख


एक न एक एक दिन आता है सब तक,


छुआ मुझे भी..


बरसा मुझ पर,


चाहा जी निचोडूं दुःख भीगी चादर उनपर ...


जो आये हैं मेरा शोक बाँटने...


किन्तु कब तक बाँटेंगे..?


कोई भी तो नही पीड़ा से अछूता....!


तो क्यों न बांटू उसी से दुःख,


बरसाए थे सुख के बादल जिस ने अब तक...


ले लूँ दुःख के बदले सुख..!


बस हाँथ बढाया और ले ली है


सूरज चाचा से एक मूठी गुनगुनी गरमास,


दरकने लगे है शोक के हिम कण और


बहने लगी है अन्तस्सलिला भीतर...!


दुपहरी भौजी का बातून पन आने नहीं देता है सूनापन मुझ तक....!


संध्या दी की दिया-बाती जगर-मगर करती है मन को...!


चंदा मामा ने भी भर झोली चांदनी सा नेह बिखरा दिया है मुझ पर...!


बेला.गुलाब..जूही..सभी तो आतुर हैं मेरा मन महर महर महकाने को...!


रजनी दादी ने अंक भर सुलाया मुझे.....!


भूल गयी हूँ सारे दुःख तो क्यों न बचा लूँ मैं


वह गुनगुनी धूप ..


दोपहर का बातूनपन...


संझा का सुकून...


चंदा की निर्मल चांदनी...


तारों का टिम टिमाना..


अपने भीतर..और बाँट लूँ किसी और का दुःख....!


-वंदना

आस.. - वंदना




आस..


ओढ़ सुधियों की सुहाग चूनर,

आंजा है नयनों में प्रतीक्षा का काजर,

मली है अनुराग की लाली गालों पर,

और,

सजा ली है सूर्य किरण सी स्मिति......

अधरों पर..

सींचा है मन आँगन की मुरझाई दूब को

उछाह के जल से बरसों बाद..

सुरभित हुआ है तन का हरसिंगार

आशा का दियना भी बारा है, मन की देहरी पर........

जगर मगर करता है अंतर्मन,

कुछ नेह भरी मनुहारे कोछियाये कोंछे में,

अन्जोरे हैं चम्पाकली चांदनी से शब्द

जोहती हूँ बाट तुम्हारी,

तुम्हारे आने की आस ही जीवन का उल्लास है

तुम आस नही तोडना, मैं मोह नही छोडूंगी ...

राह यूँ ही ताकूंगी, आशा का दियना नित देहरी पर बारुंगी ......



-वंदना

'पत्ती' - वंदना





शुष्क पत्ती झर रही थी


वृक्ष सेकांपती...


पहले चली फिर नाचती..


बढती धरा की ओर..!


नृत्य उसका मैं न समझा,


सोंचता था...

मृत्यु इस को करेगी हतप्रभ!


किन्तु मेरे सामने ही गुनगुनाती जा रही थी!


जैसे पूंछा मैंने उस ने राज़ खोला


जा रही हूँ


कोपलों के निकट मैं


नयी जो खिल रही हैं


साथ उनके हो रहूंगी,


खाद बनकरअंग उनका,


संग-संग उनके बढ़ूंगी झूम लूंगी ...


बनके छाया तनिक ही विश्राम दूँगी


फिर पथिक को


यही जीवन गति हमारी मति हमारी .....


हाँ सखे !


-वंदना