Friday 6 April 2012

'पत्ती' - वंदना





शुष्क पत्ती झर रही थी


वृक्ष सेकांपती...


पहले चली फिर नाचती..


बढती धरा की ओर..!


नृत्य उसका मैं न समझा,


सोंचता था...

मृत्यु इस को करेगी हतप्रभ!


किन्तु मेरे सामने ही गुनगुनाती जा रही थी!


जैसे पूंछा मैंने उस ने राज़ खोला


जा रही हूँ


कोपलों के निकट मैं


नयी जो खिल रही हैं


साथ उनके हो रहूंगी,


खाद बनकरअंग उनका,


संग-संग उनके बढ़ूंगी झूम लूंगी ...


बनके छाया तनिक ही विश्राम दूँगी


फिर पथिक को


यही जीवन गति हमारी मति हमारी .....


हाँ सखे !


-वंदना

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