कहने को सब कुछ अपना है,
लेकिन यह केवल सपना है,
इन सपनों के खातिर,जीते मरते रहते हैं,
व्यर्थ भटकते रहते हैं..!
... कितने जाल बुनें ज्यों मकड़ी,
रिश्तों की जंजीरें jakadeen ,
खाली घट में व्यर्थ कबाड़ा भरते रहते हैं,
व्यर्थ भटकते रहते हैं...!
बाहर रोज़ दिवाली मनती,
पर अंतस की ज्योति न जलती,
कुछ भी यहाँ न अपना,अपना कहते रहते,
व्यर्थ भटकते रहते हैं...!
हाँथ सुमरनी माला फेरूँ,
अंतस बैठा उसे न हेरूँ,
चलती बेरा झर -झर आंसू बहते रहते हैं,
व्यर्थ भटकते रहते हैं...!
-मनोरमा पांडेय
लेकिन यह केवल सपना है,
इन सपनों के खातिर,जीते मरते रहते हैं,
व्यर्थ भटकते रहते हैं..!
... कितने जाल बुनें ज्यों मकड़ी,
रिश्तों की जंजीरें jakadeen ,
खाली घट में व्यर्थ कबाड़ा भरते रहते हैं,
व्यर्थ भटकते रहते हैं...!
बाहर रोज़ दिवाली मनती,
पर अंतस की ज्योति न जलती,
कुछ भी यहाँ न अपना,अपना कहते रहते,
व्यर्थ भटकते रहते हैं...!
हाँथ सुमरनी माला फेरूँ,
अंतस बैठा उसे न हेरूँ,
चलती बेरा झर -झर आंसू बहते रहते हैं,
व्यर्थ भटकते रहते हैं...!
-मनोरमा पांडेय