Friday 27 April 2012

व्यर्थ भटकते रहते हैं..!

कहने को सब कुछ अपना है,
लेकिन यह केवल सपना है,
इन सपनों के खातिर,जीते मरते रहते हैं,
व्यर्थ भटकते रहते हैं..!

... कितने जाल बुनें ज्यों मकड़ी,
रिश्तों की जंजीरें jakadeen ,
खाली घट में व्यर्थ कबाड़ा भरते रहते हैं,
व्यर्थ भटकते रहते हैं...!

बाहर रोज़ दिवाली मनती,
पर अंतस की ज्योति न जलती,
कुछ भी यहाँ न अपना,अपना कहते रहते,
व्यर्थ भटकते रहते हैं...!

हाँथ सुमरनी माला फेरूँ,
अंतस बैठा उसे न हेरूँ,
चलती बेरा झर -झर आंसू बहते रहते हैं,
व्यर्थ भटकते रहते हैं...!
-मनोरमा पांडेय

Friday 6 April 2012

चाँद के दस्तखत..

 वक़्त की टहनी से, एक रात तोड़ कर,
एक ख्वाब जिया और  .....
ले लिए थे दस्तखत चाँद के
ताकि सनद रहे...!
हवा की रोशनाई से किये थे  जो सही
चाँद ने ,
महकते  हैं आज भी वो रातरानी से .....
आज जब नही हो तुम
ना ही उस गुज़िश्ता ख्वाब की
ताबीर की जुस्तजू,लेकिन
दिल के सादा कागज़ पे
चाँद के दस्तखत मौजूद  हैं किये थे उस ने
जो चांदनी की रौशनाई से,
ताकि सनद रहे....!
चाँद के उस दिठौने से सही ने,
दे दी है गवाही उस खूबसूरत से रिश्ते की,
जो जिया था हम ने ख्वाब में...और ,
बीज दिया है मेरे अहसास की गीली मिटटी पे,
एक रिश्ता बरगद के मानिंद...!
जो सिखाता है मुझे
 जीवन जीने की कला..
उस के पत्तों से छन-छन कर
आती चांदनी,
दुलरा जाती है मुझे.....
दूर फलक पे चाँद मुस्कुराता है,
किसी वीतरागी की तरह.....!


'दुःख' - -वंदना





दुःख


एक न एक एक दिन आता है सब तक,


छुआ मुझे भी..


बरसा मुझ पर,


चाहा जी निचोडूं दुःख भीगी चादर उनपर ...


जो आये हैं मेरा शोक बाँटने...


किन्तु कब तक बाँटेंगे..?


कोई भी तो नही पीड़ा से अछूता....!


तो क्यों न बांटू उसी से दुःख,


बरसाए थे सुख के बादल जिस ने अब तक...


ले लूँ दुःख के बदले सुख..!


बस हाँथ बढाया और ले ली है


सूरज चाचा से एक मूठी गुनगुनी गरमास,


दरकने लगे है शोक के हिम कण और


बहने लगी है अन्तस्सलिला भीतर...!


दुपहरी भौजी का बातून पन आने नहीं देता है सूनापन मुझ तक....!


संध्या दी की दिया-बाती जगर-मगर करती है मन को...!


चंदा मामा ने भी भर झोली चांदनी सा नेह बिखरा दिया है मुझ पर...!


बेला.गुलाब..जूही..सभी तो आतुर हैं मेरा मन महर महर महकाने को...!


रजनी दादी ने अंक भर सुलाया मुझे.....!


भूल गयी हूँ सारे दुःख तो क्यों न बचा लूँ मैं


वह गुनगुनी धूप ..


दोपहर का बातूनपन...


संझा का सुकून...


चंदा की निर्मल चांदनी...


तारों का टिम टिमाना..


अपने भीतर..और बाँट लूँ किसी और का दुःख....!


-वंदना

आस.. - वंदना




आस..


ओढ़ सुधियों की सुहाग चूनर,

आंजा है नयनों में प्रतीक्षा का काजर,

मली है अनुराग की लाली गालों पर,

और,

सजा ली है सूर्य किरण सी स्मिति......

अधरों पर..

सींचा है मन आँगन की मुरझाई दूब को

उछाह के जल से बरसों बाद..

सुरभित हुआ है तन का हरसिंगार

आशा का दियना भी बारा है, मन की देहरी पर........

जगर मगर करता है अंतर्मन,

कुछ नेह भरी मनुहारे कोछियाये कोंछे में,

अन्जोरे हैं चम्पाकली चांदनी से शब्द

जोहती हूँ बाट तुम्हारी,

तुम्हारे आने की आस ही जीवन का उल्लास है

तुम आस नही तोडना, मैं मोह नही छोडूंगी ...

राह यूँ ही ताकूंगी, आशा का दियना नित देहरी पर बारुंगी ......



-वंदना

'पत्ती' - वंदना





शुष्क पत्ती झर रही थी


वृक्ष सेकांपती...


पहले चली फिर नाचती..


बढती धरा की ओर..!


नृत्य उसका मैं न समझा,


सोंचता था...

मृत्यु इस को करेगी हतप्रभ!


किन्तु मेरे सामने ही गुनगुनाती जा रही थी!


जैसे पूंछा मैंने उस ने राज़ खोला


जा रही हूँ


कोपलों के निकट मैं


नयी जो खिल रही हैं


साथ उनके हो रहूंगी,


खाद बनकरअंग उनका,


संग-संग उनके बढ़ूंगी झूम लूंगी ...


बनके छाया तनिक ही विश्राम दूँगी


फिर पथिक को


यही जीवन गति हमारी मति हमारी .....


हाँ सखे !


-वंदना

'दिन भर रहती हूँ उलझी बिखरी सी' - वंदना





दिन भर रहती हूँ उलझी बिखरी सी,

शाम आते ही संवर जाती हूँ...!

रात लाती है तेरी याद का जादू और...मैं जी जाती हूँ... मर जाती हूँ!

तू रोज़ अपनी यादों से, इक आरजू जगाता है, ... ...

मैं रोज़ इसी आहट में, मर-मर के जीती जाती हूँ !

ये तेरी याद की रहगुज़र ही तो है,

जिस पे चलकर, गुज़रे लम्हों पे मुस्कुराती हूँ!

ज़िन्दगी के स्याह-स्याह दामन पर,

मुस्कुराहटों की चांदनी लुटाती हूँ..........!



-वंदना

मैं हूँ जवांसा..! - मनोरमा पांडेय 'मनो'



मैं हूँ जवांसा....!

सर पर धूप की गठरी रखे-

सूर्य की दहकती शलाकाओं से

डरता नही... ज़रा सा-

मैं हूँ जवांसा....!

एक पाँव पर खड़ा

शांत निर्विकार, अडिग

चाहे ग्रीष्म की बरसती हो आग-

या शाम का कुहासा,

मैं हूँ जवांसा....!

मेरे हरित परिधान में

उसने टाँके हैं...

पोर पोर कांटे

मेरे दंश कभी किसी ने न बांटे-

मैं कभी न घबराया ज़रा सा-

मैं हूँ जवांसा....!

मेरी टहनियों पर

झूलते हैं, नन्हे नन्हे

फूल गुलाबी

उम्र के नशे में रहते चूर-

ज्यों शराबी!

मैं क्षण में घुलता नही

पानी में ज्यों बताशा...

मैं हूँ जवासा...!


-मनोरमा पांडेय 'मनो'

Tuesday 3 April 2012






मंगलाचरण
(१)

गाइए गणपति जग वंदन, शंकर सुअन भवानी के नंदन ॥
सिद्धि सदन गज बदन विनायक, कृपा सिन्धु सुन्दर सब लायक ॥
मोदक प्रिय मुद मंगल दाता, विद्या वारिधि बुद्धि विधाता ॥
माँगत तुलसीदास कर जोरे, बसहु राम सिय मानस मोरे ॥

दोहा
गौरी पुत्र गणेश को सुमिरौं बारंबार ।
विघ्न मिटे संकट कटे, मंगल होत अपार ॥
लम्बोदर भुज चार हैं, नेत्र तीन रँग लाल ।
नाना बरन सुवेश है, मुख प्रसन्न शशि भाल ॥

(२)

  विघ्न निवारण सब सुख कारण भक्त उद्धारन ग्यान धनम ।
दैत्य विदारण परशा धारण सिद्धि कारण देव वरम ॥
गिरिजा माता षडमुख भ्राता शंकर ताता कीर्ति करम ।
 भूसुर रक्षक मोदक भक्षक ग्यानी लक्षक बुद्धि वरम ॥

शूण्डा दण्डम तेज प्रचण्डम इंदु खण्डम भाल धरम ।
      गज मुख मण्डित ओज अखण्डित पूरण पण्डित ग्यान परम ॥
गिरिजा नंदन भवदुख भंजन काटत बंधन पाश धरम ।
द्वंद्व निवारन मंगल कारण करि वर धारण शीश वरम ॥

    अति शुभ लक्षण वीर विचक्षण जन प्रन रक्षण सिद्धि करम ।
                    जन गन नायक शुभ वर दायक दास सहायक विघ्न हरम ॥