दुःख
एक न एक एक दिन आता है सब तक,
छुआ मुझे भी..
बरसा मुझ पर,
चाहा जी निचोडूं दुःख भीगी चादर उनपर ...
जो आये हैं मेरा शोक बाँटने...
किन्तु कब तक बाँटेंगे..?
कोई भी तो नही पीड़ा से अछूता....!
तो क्यों न बांटू उसी से दुःख,
बरसाए थे सुख के बादल जिस ने अब तक...
ले लूँ दुःख के बदले सुख..!
बस हाँथ बढाया और ले ली है
सूरज चाचा से एक मूठी गुनगुनी गरमास,
दरकने लगे है शोक के हिम कण और
बहने लगी है अन्तस्सलिला भीतर...!
दुपहरी भौजी का बातून पन आने नहीं देता है सूनापन मुझ तक....!
संध्या दी की दिया-बाती जगर-मगर करती है मन को...!
चंदा मामा ने भी भर झोली चांदनी सा नेह बिखरा दिया है मुझ पर...!
बेला.गुलाब..जूही..सभी तो आतुर हैं मेरा मन महर महर महकाने को...!
रजनी दादी ने अंक भर सुलाया मुझे.....!
भूल गयी हूँ सारे दुःख तो क्यों न बचा लूँ मैं
वह गुनगुनी धूप ..
दोपहर का बातूनपन...
संझा का सुकून...
चंदा की निर्मल चांदनी...
तारों का टिम टिमाना..
अपने भीतर..और बाँट लूँ किसी और का दुःख....!
-वंदना
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