Friday 27 April 2012

व्यर्थ भटकते रहते हैं..!

कहने को सब कुछ अपना है,
लेकिन यह केवल सपना है,
इन सपनों के खातिर,जीते मरते रहते हैं,
व्यर्थ भटकते रहते हैं..!

... कितने जाल बुनें ज्यों मकड़ी,
रिश्तों की जंजीरें jakadeen ,
खाली घट में व्यर्थ कबाड़ा भरते रहते हैं,
व्यर्थ भटकते रहते हैं...!

बाहर रोज़ दिवाली मनती,
पर अंतस की ज्योति न जलती,
कुछ भी यहाँ न अपना,अपना कहते रहते,
व्यर्थ भटकते रहते हैं...!

हाँथ सुमरनी माला फेरूँ,
अंतस बैठा उसे न हेरूँ,
चलती बेरा झर -झर आंसू बहते रहते हैं,
व्यर्थ भटकते रहते हैं...!
-मनोरमा पांडेय

1 comment:

  1. मन के भटकाव का बहुत सही चित्रण किया है और नसीहत भी .. यह भटकाव जरुरी भी काफी हद तक, सही रास्ता भी निकल आता हे इस भटकन के बाद ..
    माता जी को प्रणाम !

    ReplyDelete